आज़ादी के लिए चूमा फाँसी का फंदा
बुधवार, 22 अक्टूबर 2025
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आज़ादी के लिए चूमा फाँसी का फंदा
जन्मदिन २२ अक्टूबर १९००
डेस्क रिपोर्ट। एक क्रांतिकारी की कहानी जिसने धार्मिक विभाजन को ठुकराकर भारत माता की आज़ादी के लिए फाँसी का फंदा चूमा
शाहजहाँपुर के एक पठान परिवार में एक बच्चे का जन्म हुआ, जिसे किसी ने नहीं सोचा था कि वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में साम्प्रदायिक सद्भाव का प्रतीक बन जाएगा। शफ़ीक़उल्लाह ख़ाँ और मझरून्निसा के सबसे छोटे बेटे अशफ़ाक़उल्लाह ख़ाँ की कहानी सिर्फ़ एक क्रांतिकारी की नहीं, बल्कि उस युग की है जब हिंदू-मुस्लिम एकता ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ़ सबसे बड़ा हथियार थी।
१९१८ में जब पुलिस ने मैनपुरी षड्यंत्र केस के दौरान उनके स्कूल में छापा मारा और एक साथी छात्र को गिरफ्तार किया, तो १८ वर्षीय अशफ़ाक़ की ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल गई। यह घटना उनके क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत थी।
शाहजहाँपुर में ही उनकी मुलाक़ात राम प्रसाद 'बिस्मिल' से हुई। एक मुस्लिम और एक हिंदू दोनों कवि, दोनों देशभक्त, दोनों क्रांतिकारी। अशफ़ाक़ 'हसरत' के नाम से उर्दू शायरी लिखते थे, जबकि बिस्मिल हिंदी के कवि थे। उनकी दोस्ती सिर्फ़ व्यक्तिगत नहीं थी यह भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता में एकता का जीवंत उदाहरण था।
९ अगस्त १९२५। काकोरी स्टेशन के पास एक ट्रेन। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के क्रांतिकारियों ने सरकारी खज़ाने से भरी ट्रेन को रोका। उद्देश्य था हथियार खरीदने के लिए धन इकट्ठा करना।
यह डकैती नहीं थी यह अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ़ सशस्त्र विद्रोह का प्रतीक था। चंद्रशेखर आज़ाद, राजेंद्र लाहिड़ी, और अन्य साथियों के साथ मिलकर अशफ़ाक़ ने वह कार्य किया जो भारतीय इतिहास में 'काकोरी काण्ड' के नाम से अमर हो गया।
डकैती के बाद ब्रिटिश पुलिस ने व्यापक तलाशी अभियान शुरू किया। अशफ़ाक़ नेपाल गए और बाद में डालटनगंज में एक इंजीनियरिंग फ़र्म में छद्म नाम से क्लर्क के रूप में काम किया। लेकिन दिल्ली में एक विश्वासघाती ने उन्हें धोखा दिया और वे गिरफ़्तार हो गए।
क़ैद में ब्रिटिश अधिकारियों ने एक नापाक खेल खेला। उन्होंने अशफ़ाक़ को समझाने की कोशिश की कि बिस्मिल, हिंदू होने के नाते, केवल हिंदुओं की आज़ादी चाहते हैं, और मुसलमानों का भला अंग्रेज़ी शासन में ही है।
लेकिन अशफ़ाक़ और बिस्मिल दोनों ने इस विभाजनकारी चाल को ठुकरा दिया। दोनों ने एक-दूसरे के खिलाफ़ गवाही देने से इनकार कर दिया। उनकी दोस्ती धार्मिक और सांप्रदायिक सीमाओं से परे थी
अप्रैल १९२७ में मुकदमे का फ़ैसला आया। अशफ़ाक़, बिस्मिल, राजेंद्र लाहिड़ी, और रोशन सिंह को मौत की सज़ा सुनाई गई। अशफ़ाक़ के भाई रियासतउल्लाह ने उनके वकील के रूप में काम किया, लेकिन अंग्रेज़ों का फ़ैसला पहले से तय था।
१९ दिसंबर १९२७। फ़ैज़ाबाद जेल। मात्र २७ वर्ष की उम्र में अशफ़ाक़उल्लाह ख़ाँ ने फाँसी का फंदा चूमा। वे शहीद हो गए भारत की आज़ादी के लिए, हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए, एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के सपने के लिए।
अशफ़ाक़उल्लाह ख़ाँ की कहानी उस भारत की कहानी है जो धर्म, जाति, और सांप्रदायिकता से ऊपर उठकर एक साथ खड़ा हुआ था। उनकी और बिस्मिल की दोस्ती आज भी हमें याद दिलाती है कि असली देशभक्ति में कोई धार्मिक विभाजन नहीं होता।
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